उत्तराखंड

Famous Dunagiri Temple of Almora : मां वैष्णव देवी के बाद दूसरी शक्तिपीठ के रूप में है दूनागिरि की मान्यता, त्रेता व द्वापर से भी जुड़ी हैं कथाएं

Famous Dunagiri Temple of Almora अल्मोड़ा को देवभूमि उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी की तरह देखा जाता है। जिले में अनेक धार्मिक और पौराणिक स्थल यहां की थाती हैं। जिनमें से एक है दूनागिरि यानी द्रोणगिरि। दूनागिरि को वैष्णव देवी मंदिर के बाद शक्तिपीठ के रूप में मान्यता है।

द्वाराहाट : Famous Dunagiri Temple of Almora : अल्मोड़ा को देवभूमि उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी की तरह देखा जाता है। जिले में अनेक धार्मिक और पौराणिक स्थल यहां की थाती हैं। जिनमें से एक है दूनागिरि यानी द्रोणगिरि। दूनागिरि को वैष्णव देवी मंदिर के बाद शक्तिपीठ के रूप में मान्यता है। यहां देश भर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। दूनागिरि का उल्लेख पुराणों और उपनिषदों में भी मिलता है।

त्रेता युग

अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट क्षेत्र से 15 किमी दूर मां दूनागिरि माता का मंदिर है। कहा जाता है कि त्रेता युग में जब लक्ष्मण को मेघनाथ ने शक्ति बाण मारा था तब तब सुसैन वैद्य ने हनुमान जी से द्रोणांचल नाम के पर्वत से संजीवनी बूटी लाने को कहा था। जब हनुमान जी पूरा पर्वत उठा रहे थे तो उसी समय वहां पर्वत का एक छोटा सा टुकड़ा गिर गया। जिसके बाद इस स्थान पर दूनागिरी मंदिर बन गया।

द्वापर युग में पांडवगुरु द्रोण की तपोस्थली बनी तो द्रोण पर्वत कहा गया। मानसखंड के अनुसार ब्रह्म एवं लोध्र पर्वत यानी दो शिखर वाली पर्वत श्रृंखला दूनागिरी कहलाई। वहीं दो शिला विग्रहों की आदिकाल से पूजा होने के कारण इसे दूनागिरि कहा गया।

अखंड दीपक जलाकर संतान प्राप्ति के लिए पूजा

दूनागिरी मंदिर में जो भी महिला अखंड दीपक जलाकर संतान प्राप्ति के लिए पूजा करती है उसकी मुराद अवश्य ही पूरी होती है. देवी पुराण के अनुसार अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने युद्ध में विजय और द्रोपदी सतीत्व की रक्षा के लिए दूनागिरी की दुर्गा रूप में पूजा की. स्कंद पुराण के मानस खंड द्रोणादि महात्म्य में दूनागिरी को महामाया ब्रह्मचारी के रूप में प्रदर्शित किया गया है.

इसीलिए विशिष्ट हैं मां दूनागिरि

मंदिर के गर्भगृह में दो शिलाओं के रूप में प्रकृति पुरुष शिव-पार्वती, विष्णुमाया, काली-महागौरी के रूप में शक्ति का पूजन होता है। तभी तो शारदीय नवरात्रों में सप्तम् कालरात्रि को जागरण तो अष्टमी को महागौरी के पूजन को पुरातनकाल से ही मेले की परंपरा है।

यह है मां दूनागिरि के धाम की विशेषता

”कौशिकी रथवाहिन्योर्मध्ये, द्रोण गिरि: स्मृत:। द्रोणा द्यैर्व सुभि: पुण्यै: सेवित: सुमनोहर:।।

मासमात्रेण समपुज्य देवीं वह्निमतीं तथा। ये वसंती महाभागा द्रोणाद्रीशिखरे शुभे। ते सिद्धिं समनुप्राप्य पुज्यंते देव तैरबि।।” मानसखंड के द्रोणाद्रि महात्म्य के अनुसार दूनागिरि का महामाया व हरप्रिया एवं शूलहस्ता, महिषासुरघातिनी, सिंह वाहिनी व वह्निमती (सूर्य पुत्री दुर्गा) समेत सभी रूपों में महागौरी दूनागिरि में विराजमान है।

कत्यूरी राजा ने की मूर्ति स्थापित

”अष्टाचक्रा अयोध्या, इतिहास एवं परंपरा” के बहुचर्चित लेखक व रामजस महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) में संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ.मोहन चंद्र तिवारी ”दूनागिरी महात्म्य” का हवाला देते हुए कहते हैं, कत्यूरी राजा सुधारदेव ने 1318 ई. में दूनागिरी माता की मूर्ति यहां स्थापित की। 13 मार्च 1847 को बंगाल आर्टलरी में ब्रिटिश सैन्य अधिकारी मेजर ई.मैडन ने शक्तिपीठ मां दूनागिरी के बारे में लिखा है कि देवी के मंदिर की छत नहीं थी। खुले आकाश के नीचे दो शिलाखंडों की पुजारी पूजा करते हैं। मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण वर्ष 1920 में ग्रामीणों ने कराया।

मां दूनागिरि मंदिर तक पहुंचने का मार्ग

कुमाऊं के प्रवेश द्वार हल्द्वानी (नैनीताल) से 126 किमी तथा कर्णप्रयाग (गढ़वाल) से 98 किमी की दूरी पर द्वाराहाट, फिर सड़क मार्ग से 14 किमी की दूरी पर मंगलीखान तक वाहन से पहुंचा जा सकता है। यहां से पदयात्रा के रूप में 400 सीढिय़ों की चढ़ाई कर मां दूनागिरि के दर्शन किए जाते हैं।

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